नेताजी सुभाष का संकल्प, समर्पण और संग्राम कक स्वतंत्रता सेनानी थें




फोटो : फ़ाइल फोटो

चौपारण भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए सुभाष चंद्र बोस का ह्रदय किशोरावस्था से ही बेचैन था। भारत माता के इस महान सपूत ने मात्र 18 वर्ष की आयु में अपने पिता से कहा था-“पिताजी मैं स्वामी विवेकानंद के आदर्शों पर चलूंगा। स्वामी जी का आदर्श ही मेरा आदर्श है”, और वास्तव में उन्होंनेने उसे संकल्प बना कर सिद्ध किया। वे अपने विराट व्यक्तित्व के आकर्षण और प्रभाव से नौजवानों के आदर्श बन कर उभरे। भारतीय जनमानस में उनके बढ़ते प्रभाव से अंग्रेजों को डर लगने लगा। स्वामी विवेकानंद की भांति सुभाष बाबू ने भी अपना समस्त जीवन भारत माता के चरणों में समर्पित कर दिया। वह कहा करते थे कि हमारे अंदर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए, देश के लिए मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके, एक “शहीद की मौत” मरने की इच्छा ताकि हिंदुस्तान की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हो सके। मैं नहीं जानता हूँ कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के इस युद्ध में हम में से कौन जीवित बचेगा, लेकिन मैं यह अवश्य जानता हूँ कि अंत में विजय हमारी ही होगी, हमारा देश जरूर स्वतंत्र होगा। सुभाष बाबू का सबसे ऊर्जावान और विख्यात उद्घोष था “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” उनका स्पष्ट मानना था कि जब जीवन में संघर्ष ना रहे, किसी भय का सामना ना करना पड़े तब तक जीवन का आनंद ही नही है।वे राष्ट्रभक्ति के मार्ग पर चलने वाले और लोककल्याण की धारा पर प्रवाहित होने वाले उन महान व्यक्तियों में से एक थे जिनकी मनोवृति इतनी उच्च कोटि की हो चुकी थी कि वहां वासना, तृष्णा, मोह माया का कोई स्थान नहीं था। सुभाष बाबू आईसीएस की परीक्षा पास करने वाले देश के पहले नौजवान थे जो प्रथम श्रेणी की प्रतिष्ठित नौकरी को त्याग कर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपने को न्यौछावर करने के लिए कूद पड़े। सुभाष बाबू का भाषण इतना ओजस्वी होता था कि उससे प्रेरित होकर हजारों नौजवान वकील, शिक्षक, डॉक्टर और अन्य सरकारी नौकर अपना सब कुछ छोड़ कर आजादी के आंदोलन में कूदने लगे थे। नेताजी सुभाष के संकल्प की खबर बंगाल होते हुए पूरे भारतवर्ष में फैल गई, लोग उनके समर्थन में गोलबंद होने लगे। अंग्रेजों के साथ सीधा संग्राम करने की तैयारी उन्होंने कर लिया था। उनके आंदोलन की तीव्रता को देखकर अंग्रेज सरकार डर गई थी कुछ समय बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। लगातार उन पर मुकदमे चल रहे थे, सन 25 जनवरी 1941 को कोलकाता की अदालत में उनपर मुकदमा पेश होने वाला था, पर उस समय वह घर से गायब हो गए, जबकि उनके घर के बाहर अंग्रेज पुलिस का पहरा लगा रहता था। मजबूत पहरा के बावजूद सुभाष बोस भेष बदलकर निकल गए और उसी वेश में पेशावर से होकर काबुल पहुंच गए। वहां से स्थल मार्ग से करते हुए जर्मन पहुंचकर इंग्लैंड और अंग्रेजों के कट्टर शत्रु हिटलर से मुलाकात किया, फिर नाव द्वारा वे जापान पहुंच गए। उस समय जापान ने अंग्रेजों द्वारा अधिकृत बर्मा पर आक्रमण करके अपना शासन स्थापित कर दिया था। सुभाष चंद्र बोस ने वहां भारतीय सैनिकों तथा अन्य भारतवासियों की आजाद हिंद सेना बनाई और एक आजाद हिंद सरकार भी स्थापित कर दी। उनकी सेना की तरफ से अंग्रेजों पर हमला किया गया और इंफाल आसाम में एक बड़ी लड़ाई हुई, कुछ समय बाद अंग्रेजों सेनाएं काफी संख्या में आ जाने से आजाद हिंद सेना को पीछे हटना पड़ा। इस प्रकार सुभाष बाबू अंग्रेजों को भारत से भगाने का प्रयास करते रहे जिसका भारतवर्ष तथा दुनिया के अन्य देशों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। अगस्त 1945 में जब जापान ने हारकर आत्मसमर्पण कर दिया तो आजाद हिंद सेना भंग कर दी गई। 16 अगस्त 1945 को उन्होने विमान से सिंगापुर से बैंकाक के लिये प्रस्थान किया। 17 अगस्त की सुबह, वे बैंकाक से सैगों (अब हो चि मिन्ह सिटी) गये। 17 अगस्त को तीसरे पहर वे वहाँ से तौरानी (वर्तमान में दा नाङ, वियतनाम) गये। 18 अगस्त को सुबह 4 बजे वे वहाँ से फॉर्मोसा के लिये रवाना हुए। 18 अगस्त को दिन में लगभग ढाई बजे उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। सुभाष चंद्र बोस देशभक्ति और बलिदान भारतीय जनमानस में हमेशा के लिए अंकित हो गई, उनकी मृत्यु के दो साल बाद भारत आजाद हो गया। देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले क्रांतिकारी का बलिदान आने वाली पीढियां याद रखेगी।

Related posts