होलिका दाह और होली ( वसन्तोत्सव ) में परस्पर सम्बन्ध है। प्रायः होलिका दाह के अगले दिन होली मनायी जाती है। वैसे वसन्तोत्सव (होली) का आरम्भ वसन्त पंचमी से ही हो जाता है तथा जैसे-जैसे होली निकट आती है वैसे वैसे इसका उत्कर्ष भी देखने को मिलता है , विशेष रूप से रंगभरी एकादशी के बाद । इसी क्रम में अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग तिथि में होली मनाने की परंपरा भी देखी जाती है। फिर भी सर्वसाधारण या सामान्यतः होली होलिका दाह के अगले दिन होती है। पर इस वर्ष 17 मार्च को होलिका दहन होने के कारण होली 18 मार्च को मनानी चाहिए या 19 मार्च को? यह संशय है, क्योंकि कहीं 18 मार्च को होली मनाने की सूचना मिल रही है तो कहीं 19 मार्च को। अतः कुछ चर्चा प्रस्तुत है-
होलिका दाह —
होलिका दाह को लेकर शास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है । इस वर्ष होलिका दाह 17 मार्च को रात भद्रा के बाद पूर्णिमा में होगा – यह निर्विवाद है। अतः इस पर कुछ लिखना अपेक्षित नहीं है(विशेष जिज्ञासु जन संलग्न संस्कृत छाया प्रति देख सकते हैं)
हाँ, होलिका दाह की विधि/प्रक्रिया शास्त्रों में वर्णित है जिसके अन्तर्गत होलिका का पूजन महत्त्वपूर्ण है। काशी, हरिद्वार आदि क्षेत्रों में होता भी है पर गाँवों में प्रायः लोग अनभिज्ञता के कारण हास-परिहास में ही आग लगा देते हैं जो उचित नहीं है। यथासम्भव शास्त्रीय नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए। होलिकापूजन, प्रार्थना, वायुपरीक्षण, भस्मधारण मन्त्र आदि की छाया प्रति संलग्न है, श्रद्धालु गण अपना सकते हैं।
होली ( वसन्तोत्सव) —
18 मार्च को मनानी चाहिए या 19 मार्च को? इस सन्दर्भ में निम्न वचन ध्यातव्य है-
होली या वसन्तोत्सव चैत्र कृष्ण प्रतिपद् ( एकम या परुवा) को मनाना चाहिए। यद्यपि 18 मार्च को मध्याह्न में पूर्णिमा के बाद प्रतिपद् आ रही है फिर भी होली के लिए औदयिक प्रतिपद् ग्राह्य है अर्थात् जिस दिन प्रतिपदा तिथि में सूर्योदय हो रहा हो उस दिन मनाना चाहिए। इस सन्दर्भ में हेमाद्रि ,भविष्यपुराण आदि ग्रन्थों में कहा गया है-
प्रवृत्ते मधुमासे तु प्रतिपद्युदिते रवौ।
कृत्वा चावश्यकार्याणि सन्तर्प्य पितृदेवताः।
वन्दयेद्धोलिकाभूमिं सर्वदुःखोपशान्तये।।
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्ये तु प्रतिपद्दिने।
यस्तत्र श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः।।
न तस्य दुरितं किञ्चिन्नाधयो व्याधयो नृप।
प्रभाते विमले जाते ह्यङ्गे भस्म च कारयेत्।
सर्वाङ्गे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्।।
सिन्दूरैःकुङ्कुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्।
गीतं वाद्यं च नृत्यं च कुर्याद्रथ्योपसर्पणम्।।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैःशूद्रैश्चान्यैश्च जातिभिः।
एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुणैःसदा।
बालकैः सह गन्तव्यं फाल्गुने च युधिष्ठिर। ।
पद्मपुराण में कहा गया है-
चैत्रे मासि महापुण्या निर्मिता प्रतिपत्पुरा।
तस्यां यःश्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यात् सचैलकम्।।
न तस्य दुरितं किञ्चिन्नाधयो व्याधयो न च।
भवन्ति कुरुशार्दूल तस्मात् सम्यक् समाचरेत्।।
इन भविष्य पुराण, हिमाद्रि, पद्मपुराण आदि के वचनों से तथा इनके आधार पर निर्णयसिन्धु, धर्मसिन्धु (धर्मसिन्धु में चैत्रकृष्ण प्रतिपद् की जगह फाल्गुन कृष्ण प्रतिपद् का प्रयोग अमावस्यान्त मास गणना के अनुसार है। हमारे यहाँ पूर्णिमान्त मास गणना प्रचलित है तदनुसार वह चैत्र कृष्ण प्रतिपद् है) ,वर्षकृत्यदीपक, कृत्यसारसमुच्चय आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत विवेचन से स्पष्ट है कि चैत्र कृष्ण औदयिक प्रतिपद् को अर्थात् जिस दिन प्रतिपदा तिथि में सूर्योदय हो उस दिन वसन्तोत्सव (होली) मनाना चाहिए। यदि दो दिन प्रतिपद् हो अर्थात् प्रतिपद् में दो सूर्योदय हों तो पूर्व दिन वाली प्रतिपद् को मनाना चाहिए और प्रतिपद् का क्षय हो तो जब प्रतिपद् मिले(पूर्णिमाविद्ध) तब मनाना चाहिए। इस सन्दर्भ में निर्णयसिन्धु आदि ग्रन्थों में वृद्धवशिष्ठ का वचन उद्धृत है-
वत्सरादौ वसन्तादौ बलिराज्ये तथैव च।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या प्रतिपत् सर्वदा बुधैः।।
हालाँकि इस वचन में पूर्वविद्धा शब्द को लेकर संशय उत्पन्न होता है कि जब दो दिन औदयिक प्रतिपद् होगी तब प्रथम दिन वाली प्रतिपद् पूर्वविद्धा नहीं हो सकती, सूर्योदय से अग्रिम सूर्योदय तक प्रतिपद् रहेगी ही।यदि पूर्वदिन सूर्योदय से पूर्व पूर्णिमा होने के कारण पूर्वविद्धा कहा जाय तो “दिनद्वयसत्त्वे••” आदि वचनों से विरोध प्राप्त होता है, फिर भी वसन्तोत्सव विधि के सन्दर्भ में प्रयुक्त वचनों एवं अन्य अनेक साक्ष्यों से स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वविद्धा का तात्पर्य पूर्वा है। निर्णयसिन्धु,धर्मसिन्धु,वर्षकृत्यदीपक, कृत्यसारसमुच्चय आदि ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से पूर्वा शब्द का प्रयोग किया गया है (“काशी में पूर्वविद्धा सायं प्रतिपद् होने पर होली मनाने की परंपरा है, इसलिए प्रायः एक दिन पहले होली होती है ” ऐसा मैंने गुरुमुख से सुना है)।
इस वर्ष 18 मार्च को पूर्णिमा में सूर्योदय हो रहा है तथा पूर्णिमा का मान 12 बजे के बाद तक( वाराणसी के हृषिकेश पंचांग में 12-50 है , हरिद्वार में प्रचलित मार्तण्ड पंचांग में 3-35 तक है, दिवाकर में 3-25 तक है, इसी प्रकार अन्य पंचांगों में समय भेद है) है।
19 मार्च को प्रतिपदा तिथि में सूर्योदय हो रहा है । अधिकतम पंचांगों में 19 मार्च को होली प्रदर्शित किया गया है।
निर्णय—
निष्कर्ष यही है कि 19 मार्च को ही वसन्तोत्सव (होली) मनाना चाहिए।
कुछ लोगों का कहना है कि होलिका( प्रह्लाद को जलाने के लिये गोद में रखकर बैठी हिरण्यकशिपु की बहन ढूंढा राक्षसी) जल गयी, उसके बाद अगले दिन होली मनाने में क्या समस्या है? इस सन्दर्भ में यही निवेदन है कि अपने तर्क के आधार पर शास्त्रीय वचनों का उल्लंघन कभी भी मान्य नहीं हो सकता। होली के लिए शास्त्रों में स्पष्ट विधान किया गया है,तदनुसार ही मनाना चाहिए। वैसे आप उत्सव जब चाहें मनायें, पर होली (वसन्तोत्सव) 19 मार्च को ही है

