हजारीबाग : कांग्रेस कार्यालय कृष्ण बल्लभ आश्रम में सरकार के द्वारा दिए गए गाइड लाइन का अनुपालन करते हुए अमर शहीद सिद्धो-कान्हू की शहादत को हुल दिवस के रूप में मनाई गई । इस अवसर पर उनके चित्र पर माल्यार्पण कर उनहे भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई ।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए जिला अध्यक्ष अवधेश कुमार सिंह ने कहा कि संथाल परगना को पहले जंगल तराई के नाम से जाना जाता था । संताल आदिवासी लोग संथाल परगना क्षेत्र में 1790 ईसवी 1810 ईसवी के बीच बसे संथाल परगना को अंग्रेजों द्वारा दामिम ए कोह जाता था और इसकी घोषणा 1824 में हुई । और इसी संथाल परगना में संथाल आदिवासी परिवार में दो वीर भाइयों का जन्म हुआ जिसे हम सिद्धो-कान्हू मुर्मू के नाम से जानते हैं जिसने अंग्रेजों के आधुनिक हथियार को अपने तीर धनुष के आगे झुकने पर मजबूर कर दिया । सिद्धो मुर्मू का जन्म भोगनाडीह नामक गांव में एक संताल आदिवासी परिवार मैं हुआ था जो कि वर्तमान में झारखंड के साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड में है । सिद्धो मुर्मू का जन्म 1815 ईस्वी में हुआ था एवं कान्हू मुर्मू कहां जन्म 1820 ईस्वी मैं हुआ था ।
संथाल विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाने वाले इनके दो भाई भी थे जिनका नाम चांद मुर्मू और भैरव मुर्मू था । चांद का जन्म 1825 एवं भैरव का जन्म 1835 ईस्वी में हुआ था । इनके अतिरिक्त इनकी दो बहनें भी थी जिनका नाम फूलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू थे । इन छे: भाई-बहनों के पिता का नाम चुन्नी मांझी था । सिद्धो-कान्हू नें 1855-1856 में ब्रिटिश सत्ता साहूकारों व्यापारियों व जमींदारों के अत्याचार के खिलाफ एक विद्रोह की शुरुआत की जिसे संथाल विद्रोह या हूल आंदोलन के नाम से जाना जाता है । संथाल विद्रोह का नारा था करो या मरो अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो । सिद्धो ने अपनी दैवीय शक्ति का हवाला देते हुए सभी मांझीयों को साल की टहनी भेज कर संथाल हूल आंदोलन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था । 30 जून 1855 को भोगनाडीह मैं संथाल आदिवासियों की सभा हुई जिसमें 400 गांव से 50,000 संथाल एकत्र हुए । जिसमें सिद्धो को राजा कान्हू और चांद को मंत्री एवं भैरव को सेनापति चुना गया । संथाल विद्रोह भोगनाडीह से शुरू हुआ जिसमें संथाल तीर धनुष से लेस अपने दुश्मनों पर टूट पड़े जबकि अंग्रेजों में इसका नेतृत्व जनरल लायॅड ने किया जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे । इस मुठभेड़ में महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दरोगा की हत्या कर दी गई इससे अंग्रेजों में भय का माहौल बन गया ।
संथालों के भय से अंग्रेज बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया गया था जो आज भी झारखंड के पाकुड़ जिले में स्थित है ।अततः इस मुठभेड़ में संथालों की हार हुई और सिद्धो और कान्हू को फांसी दे दी गई ।
सिद्धो को अगस्त 1855 में पकड़कर पंचकोठिया नामक जगह पर बरगद के पेड़ पर फांसी दे दी गई वह पेड़ आज भी पंचकोठिया में स्थित है ,जिसे शहीद स्थल भी कहा जाता है । जबकि कान्हू को भोगनाडीह मैं फांसी दे दी गई पर आज भी वह संथालों के दिलों में जिंदा एवं याद किए जाते हैं । काल मार्क्स विद्रोह को भारत का प्रथम जनक्रांति कहा था । आज भी 30 जून को भोगनाडीह में हूल दिवस पर सरकार द्वारा विकास मेला लगाया जाता है एवं वीर शहीद सिद्धो-कान्हू को याद किया जाता है ।
मौके पर वरिष्ठ कांग्रेसी शशि मोहन सिंह, रविन्द्र कुमार सिंह, मिथिलेश दुबे, उपाध्यक्ष सह मीडिया प्रभारी निसार खान, गोविंद राम, धीरेन्द्र कुमार दुबे, मकसुद आलम, सुनिल कुमार ओझा, मनोज कुमार मोदी, सुनिल सिंह राठौर, रविन्द्र गुप्ता, सदरूल होदा, अजित कुमार सिंह, मंसुर आलम, राजू चौरसिय, चंदन कुमार गुप्ता, सलीम रजा, निशांत कुशवाहा, राशिद खान, विजय कुमार सिंह, सैयद अशरफ अली, सत्यम कुमार, मजहर हुसैन, शशि भुषन, मो. आबिद, सरयू यादव, कैलाश पति देव, शिव नंदन साहू के अतिरिक्त कई कांग्रेसी उपस्थित थे ।
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